कहानी संग्रह >> घोड़ा एक पैर घोड़ा एक पैरदीपक शर्मा
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समकालीन जनजीवन और उत्तरआधुनिक समय के संक्रमण को बखूबी व्यक्त करती कहानियाँ...
ग्यारह कथा-संग्रहों से अपनी पहचान बना चुकीं दीपक शर्मा
हिन्दी कथा साहित्य का भास्वर हस्ताक्षर हैं। जब अनेक महिला रचनाकारों ने
‘स्त्री-विमर्श’ को ‘देह-विमर्श’ के दायरे में समेटने की अनावश्यक कोशिशों में कसर नहीं छोड़ी है, ऐसे में स्त्री-प्रश्नों को ‘स्त्री-मुक्ति’ और ‘सापेक्ष
स्वतन्त्रता’ का ज़रूरी कलेवर प्रदान करने में दीपक शर्मा की कहानियाँ अपना उत्तरदायित्व निर्धारित करती हैं।
दीपक शर्मा की कहानियों का अनुभव-संसार सघन और व्यापक है, जिसकी परिधि में निम्न-मध्यवर्गीय विषम जीवन है तो उत्तरआधुनिक ऐष्णाएँ भी हैं। इसके सिवा जीवन की अनेक समकालीन समस्याएँ, शोषण के नित नवीन होते षड्यन्त्रों और कठिन परिस्थितियों के प्रति संघर्ष लेखिका की कहानियों में उत्तरजीवन की चुनौतियों की तरह प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं; और कथा रस की शर्तों पर तो इनका महत्त्व कहीं और अधिक हो जाता है। बीमार बूढ़ों की असहाय जीवन दशा, लौहभट्ठी में काम करनेवाले श्रमिकों की जिजीविषा, कामगार माँ और उसका दमा, जातिवाद और पहचान का संकट जैसे कई अनिवार्य और समकालीन प्रश्नों से उपजी ये कहानियाँ आम जनजीवन और उत्तरआधुनिक समय के संक्रमण को बख़ूबी व्यक्त करती हैं और ‘जीवन-विमर्श’ में तब्दील हो जाती हैं। यह कहना असंगत न होगा कि मौजूदा समय में आज के मनुष्य का प्राप्य ‘घबराहट’ मात्र होकर रह गया है। इसीलिए ‘‘घबराहट के अनेक अभिधान–रोष, कोप, सम्भ्रम, उलझन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, नैतिक आपत्ति और यहाँ तक कि हितैषिता और हताशा भी... ‘‘उक्त कथा-परिवार में गहरी और मार्मिक संवेदना के साथ अपना हल तलाशते दिखते हैं। दीपक शर्मा ऐसे विषम विषयों के लिए जिस बिलकुल नयी भाषा का आविष्कार करती हैं, उसका सौन्दर्य पाठकों को आकर्षित किये बिना न रहेगा; ऐसा विश्वास है।
दीपक शर्मा की कहानियों का अनुभव-संसार सघन और व्यापक है, जिसकी परिधि में निम्न-मध्यवर्गीय विषम जीवन है तो उत्तरआधुनिक ऐष्णाएँ भी हैं। इसके सिवा जीवन की अनेक समकालीन समस्याएँ, शोषण के नित नवीन होते षड्यन्त्रों और कठिन परिस्थितियों के प्रति संघर्ष लेखिका की कहानियों में उत्तरजीवन की चुनौतियों की तरह प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं; और कथा रस की शर्तों पर तो इनका महत्त्व कहीं और अधिक हो जाता है। बीमार बूढ़ों की असहाय जीवन दशा, लौहभट्ठी में काम करनेवाले श्रमिकों की जिजीविषा, कामगार माँ और उसका दमा, जातिवाद और पहचान का संकट जैसे कई अनिवार्य और समकालीन प्रश्नों से उपजी ये कहानियाँ आम जनजीवन और उत्तरआधुनिक समय के संक्रमण को बख़ूबी व्यक्त करती हैं और ‘जीवन-विमर्श’ में तब्दील हो जाती हैं। यह कहना असंगत न होगा कि मौजूदा समय में आज के मनुष्य का प्राप्य ‘घबराहट’ मात्र होकर रह गया है। इसीलिए ‘‘घबराहट के अनेक अभिधान–रोष, कोप, सम्भ्रम, उलझन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, नैतिक आपत्ति और यहाँ तक कि हितैषिता और हताशा भी... ‘‘उक्त कथा-परिवार में गहरी और मार्मिक संवेदना के साथ अपना हल तलाशते दिखते हैं। दीपक शर्मा ऐसे विषम विषयों के लिए जिस बिलकुल नयी भाषा का आविष्कार करती हैं, उसका सौन्दर्य पाठकों को आकर्षित किये बिना न रहेगा; ऐसा विश्वास है।
दीपक शर्मा
जन्म : 30 नवम्बर, 1946।
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज, लखनऊ के अँग्रेजी स्नातकोत्तर विभाग में अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
प्रकाशन : कहानी संग्रह : हिंसाभास (1993), दुर्ग-भेद (1994), परख-काल (1994), उत्तरजीवी (1995), आतिशी शीशा (1997), चाबुक सवार (2003), रथ-क्षोभ (2006), दूसरे दौर में (2008) और प्रस्तुत संग्रह ‘घोड़ा एक पैर’। इनके अतिरिक्त भारत की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में अनेक कहानियाँ प्रकाशित।
सम्प्रति : लेखन में संलग्न।
सम्पर्क : बी-35, सेक्टर सी, अलीगंज, लखनऊ-226024 (उ.प्र.)।
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज, लखनऊ के अँग्रेजी स्नातकोत्तर विभाग में अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
प्रकाशन : कहानी संग्रह : हिंसाभास (1993), दुर्ग-भेद (1994), परख-काल (1994), उत्तरजीवी (1995), आतिशी शीशा (1997), चाबुक सवार (2003), रथ-क्षोभ (2006), दूसरे दौर में (2008) और प्रस्तुत संग्रह ‘घोड़ा एक पैर’। इनके अतिरिक्त भारत की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में अनेक कहानियाँ प्रकाशित।
सम्प्रति : लेखन में संलग्न।
सम्पर्क : बी-35, सेक्टर सी, अलीगंज, लखनऊ-226024 (उ.प्र.)।
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